क्या भारतीय अर्थव्यवस्था की जीवंतता सचमुच है खतरे में?

(के पी सिंह)

अमेरिका के बदजुबान और बदमिजाज राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर भारत के लोगों को चिढ़ाने वाला बयान दे डाला। वे लगातार ऐसी कोशिश कर रहे हैं जिससे नजर आता है कि भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नीचा दिखाना उन्होंने अपना मकसद बना लिया है। जबकि वे समय-समय पर यह कहने से भी नही चूकते कि भारत और मोदी को वे बहुत पसंद करते हैं। राष्ट्रपति ट्रंप ने ताजा बयान में भारत और रूस को एक तराजू पर तौलते हुए दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मृत बता डाला और कहा कि इसलिए उन्हें इनकी परवाह नही है। भारत के लोगों में उनके इस बयान के कारण तींखी प्रतिक्रिया देखी जा रही है।
दूसरी ओर नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी एक नादानी कर बैठे। उन्होंने कह दिया कि ट्रंप के बयान में गलत क्या है। एक नेता को भावुक होने की बजाय समझदारी से काम लेना चाहिए। इस मामले में राहुल गांधी के अन्दर बहुत कमी देखने को मिली। यह सही है कि कुछ पहलू ऐसे हैं जिनके परिपे्रक्ष्य में डोनाल्ड ट्रंप के बयान में वास्तविकता की झलक ढ़ूढ़ी जा सकती है। लेकिन राहुल गांधी को मौके की नजाकत को समझना चाहिए था। अगर वे ट्रंप की बात को सिरे से नकारने का औचित्य नही समझ पा रहे थे तो भी उनके लिए श्रेयस्कर रहता कि वे न उनके बयान की ताईद करते और न ही उसे खारिज करते। उस पर तुर्रा यह है कि अपनी पार्टी में उन्होंने तमाम आस्तीन के सांप पाल रखे हैं। यथास्थितिवादी सोच के कुलीनों की पार्टी रही कांग्रेस में अभी भी ऐसे ही लोग हावी हैं जो राहुल गांधी की नई लाइन को हजम नही कर पा रहे। बल्कि यह कहना चाहिए कि उनके लिए राहुल गांधी की बदली हुई सोच असहनीय बन चुकी है।
होना यह चाहिए था कि अगर राहुल गांधी ने पार्टी को अपने विचारों के मुताबिक ढाल लिया होता तो उनकी इस चूंक को भी सुधारा जा सकता था। इसके लिए उन्हें रफूगरी में मास्टर पार्टी सहयोगियों की जरूरत थी। राहुल गांधी ने जिस आधार पर ट्रंप के बयान को सही महसूस किया अगर हम जैसे लोगों का अनुमान सही है तो अर्थव्यवस्था को लेकर जनपक्षीय दृष्टिकोण को उभारते हुए कांग्रेस के नेता उनके बयान की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत कर सकते थे जिनसे लोगों में राहुल के प्रति कोई गलतफहमी न पनप सके। पर कांग्रेस की टीम अपने वर्ग स्वार्थों के कारण राहुल के वैचारिक स्तर पर पहुंचने में सक्षम नही हैं। शशि थरूर और मनीष तिवारी को तो राहुल का प्रतिवाद करना ही था पर राजीव शुक्ला भी पीछे नही रहे जिन्हें प्रियंका अपना बड़ा भरोसेमंद मानती हैं। कई बार कांग्रेस के नेता दबी जुबान से राजीव शुक्ला के बारे में राहुल और प्रियंका को आगाह करने का प्रयास कर चुके हैं लेकिन विडंबना यह है कि राहुल वैचारिक स्तर पर जिस फ्रीक्वन्सी पर बोलने लगे हैं प्रियंका भी तो उसे नही पकड़ पा रहीं। एक छुटभैये पत्रकार से कुबेरपति बनने तक का सफर राजीव शुक्ला भी तो इसी अर्थ अव्यवस्था के कारण तय कर पायें हैं। इसीलिए कांग्रेस में रहकर भी क्रिकेट के बहाने जय शाह के जरिये उन्होंने अमित शाह से तार जोड़ रखे हैं। राजीव शुक्ला उस राजनीति के अभ्यस्त हैं जिसमें नेताओं की पार्टियां तो अलग-अलग होती हैं लेकिन वास्तविकता में उन सभी का क्लब एक ही होता है। यह कुलीन राजनीति का अनिवार्य चरित्र है जिसे राजनीति की बारीक समझ रखने वाले सारे लोग अच्छी तरह समझते हैं।
कांग्रेस से हटकर फिर मूल बात पर आयें। अर्थव्यवस्था का डाटाबेस भी तो ट्रंप के बयान को नकारता है। आंकड़ों से परखें तो भारत विकास दर के मामले में अग्रणी देश है। हालांकि भारत भी उसके प्रति लगाये जाने वाले अनुमानों के अनुरूप प्रदर्शन नही कर पा रहा लेकिन आंकड़े कहते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था ठहराव की शिकार हो चुकी है, अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भी सुस्ती है जबकि भारत अपेक्षाकृत कुलाचे भर रहा है। ट्रिलियन के पैमाने से नापे तो वह दुनियां की चैथी अर्थव्यवस्था बनने के बाद अब जर्मनी को पीछे छोड़कर तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था की दहलीज पर पहुंच चुका है। पर सफलता के सबके अलग-अलग पैमाने हैं। जिन पैमानों के आधार पर विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था का आंकलन होता है उन्हें एश्वर्यशाली वर्ग के चश्में के आधार पर गढ़ा गया है लेकिन सभ्य और लोकतांत्रिक दुनियां के लक्ष्य तो समग्रता में जनजीवन की खुशहाली सुनिश्चित करना है न कि समृद्धि के टापू खड़े करना। क्या यह दुनियां अपने इस लक्ष्य में सफल हो पा रही है या फिर वीरभोग्या वसुंधरा की कसौटी उसने अपने लिए सर्वोपरि बना ली है। धनबलियों की बहार में रमण करती अर्थव्यवस्था के सौंदर्य में क्या दुनियां का नक्शा गढ़ने वाले लोग अपनी सुध-बुध खो बैठे हैं।
क्रेडिट सुइस वेल्थ ने भारत को लेकर जो आंकड़े जारी किये हैं वे बताते हैं कि देश में हाल में अरबपतियों की संख्या तो 300 प्रतिशत बढ़ी है जबकि भारत की 50 प्रतिशत आबादी की आमदनी या तो स्थिर हैं या घट गई है। अगर हमारी अर्थव्यवस्था मुर्दा नही हुई है, जीवंत है तो उसकी ताजगी से पूरी आबादी सराबोर होना चाहिए। लेकिन व्यापक आबादी के लिए देश की आर्थिक नीतियां अभिशाप साबित हो रही हैं। चंद लोगों के पास दौलत के पहाड़ खड़े होना भी इसी बदहाली को दूसरा पहलू है जिसे सुनहरी तस्वीर के खाके के रूप में प्रस्तुत किया जाना सरासर धोखाधड़ी है। प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत दुनियां के शीर्ष 50 देशों से पीछे है। यह आंकड़ा भी अर्थव्यवस्था के लाल कालीन के नीचे बजबजाती गंदगी से रूबरू कराता है।
लोगों की आमदनी न बढ़ने का प्रभाव देश के बाजार के ढहने के कगार पर खड़े हो जाने के रूप में प्रदर्शित हो रहा है भले ही व्यवस्था के कर्ता-धर्ता इस ओर से लोगों का ध्यान बंटाने की कारीगरी दिखाने में कामयाब हों। औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष जून में इसकी वृद्धि दर 4.9 प्रतिशत थी जो कि इस वर्ष आलोच्य महीने में नीचे गिरकर 1.5 प्रतिशत रह गई है। विनिर्माण, खनन और बिजली क्षेत्रों में मुख्य रूप से गिरावट दर्ज हुई है। इस गिरावट का कारण क्या है। विशलेषण किया जाये तो लोगों की आमदनी न बढ़ने और वस्तुओं की महगाई होने से लोगों की क्रय क्षमता जबाव दे रही है। जब बाजार में ग्राहक ही नही होगें तो उत्पादन किसके लिए बढ़ाया जायेगा। जाहिर है कि जब उत्पादन घटाना पड़ेगा तो रोजगार भी कम से कम रह जायेगा। यह तो तात्कालिक असर है यानि कहा जाये तो यह अभी ट्रेलर है। पूरी फिल्म तो अभी आनी है।
देश की आर्थिक स्थिति भी अच्छी है और सरकार को अपने मुनाफा देने वाले उपक्रम तक बेचने पड़ रहे हैं। देश की आर्थिक स्थिति गतिमान है लेकिन सरकार के पास कर्मचारी रखने के लिए पैसे का टोटा है। क्या अजीब मिजाज है। बहरहाल व्यवस्था चलाने के लिए सरकार ने नियमित नौकरियों के विकल्प में आउटसोर्सिंग का जो तरीका निकाला है वह बेगार प्रथा से भी बुरा है। नाम मात्र के मेहनताने पर बेरोजगार नौजवानों की मजबूरी का फायदा उठाने का यह तरीका अर्थव्यवस्था के लिए घातक है। 8-10 हजार रुपये महीने पर काम करने वाले आउटसोर्स कर्मचारी क्या खरीदेगें और क्या खायेगें। जाहिर है कि बाजार इनसे सपोर्ट की आशा रख नही सकता। दूसरी ओर नियमित कर्मचारी नौकरी करके तेजी से रिटायर हो जाने वाले हैं। यह लोग बाजार की लाइफ लाइन हैं जो काटी जा रही है और इसकी भरपाई के लिए आशा की कोई किरण नही है। जब सरकार आउटसोर्स प्रथा में इतने कम मेहनताने पर काम कराने में शर्म महसूस नही कर रही तो निजी क्षेत्र उससे प्रेरणा क्यों न ले। व्यापक आबादी को अभाव ग्रस्तता में धकेलने की इस परियोजना के चलते कोई अंधा भी अर्थव्यवस्था की मजबूती के दावें पर यकीन नही कर सकता।
इसके बावजूद करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या बढ़ने का रहस्य कोई तलाशने निकले तो उसे पता चलेगा कि गवर्नेन्स के नाम पर देश को अराजकता के कैसे डंडे से हांका जा रहा है। जब गरीबों को कुछ देने की बात आती है तो खाये-पिये-अघाये लोगों का वर्ग चिल्लाने लगता है कि हमारे टैक्स से भरा जाना वाला खजाना गरीबों को रियायती बिजली देने पर क्यों लुटाया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार का खजाना किनकी जेब से भर रहा है। कर संग्रह के आंकड़ों पर गौर करिये जो कहते हैं कि देश के सबसे धनी 10 प्रतिशत लोग जीएसटी में केवल 3 से 4 प्रतिशत का योगदान करते हैं। जीएसटी में अधिकांश शेयर गरीब आबादी का होता है। उपभोग पर अधारित अप्रत्यक्ष करों में गरीब और मध्यम वर्ग की देनदारी 50 से 60 प्रतिशत तक की रहती है। दूसरी ओर उच्च आय वर्ग है जो आयकर से लेकर निगम कर तक में जितना देता है उससे कई गुना चोरी कर लेता है क्योंकि उसके पास इसके रास्ते सुलभ रहते हैं। जबकि गरीब कर के मामले में अरक्षित खड़ा है। अगर वह एक माचिस भी खरीदेगा तो भी सरकार उससे टैक्स ऐठ लेगी। कर से बच निकलने का कोई रास्ता गरीब के पास नही है। फिर भी वह न्यूनतम सुविधाओं के लिए मोहताज रहे। क्यों? अभावग्रस्त लोगों को जो दिया जा रहा है वह खैरात नही है उसका अधिकार है। उसके अभाव के पीछे आर्थिक अन्याय है जिसके पाप को सम्पन्न वर्ग स्वीकार नही करना चाहता। तो अरबपतियों की संख्या बढ़ने का एक कारण है कि उन्हें टैक्स चोरी को अपनी आमदनी में बदलने के लिए पूरा तंत्र मददगार बनकर खड़ा हुआ है।
रईसी बढ़ने का दूसरा कारण है विकास कार्यों के जरिये आम आदमी के खून-पसीने की कमाई से वसूले जाने वाले टैक्स से भरे गये सरकारी खजाने की लूट। सीधे कर, उप कर और न जाने किस-किस तरीके से और कितनी-कितनी टेढ़ी उंगलियां सरकारी तंत्र ने ईजाद कर ली हैं जिससे हर साल उसका खजाना लबालब हो जाता है। इस खजाने को विकास के नाम पर बाहर निकाल लिया जाता है और इसमें होता है अधिकारियों, इंजीनियरों और नेताओं के बीच कमीशन का बंदरबांट। 70 प्रतिशत तक के कमीशन तक पर बात पहुंच गई है। इससे लाभान्वित होकर करोड़पति और अरबपति बनने वालों की भी एक फौज तैयार हो रही है। जाहिर है कि अरबपतियों की संख्या बढ़ने के पीछे ईमानदार उद्यमिता कारण नही है यही हेरा-फेरी है जिसे लोगों को समय रहते समझना पड़ेगा वरना उनका बेड़ा गर्क हो जायेगा।
आंकड़े जहां औद्योगिक उत्पादन में गिरावट को दर्शा रहें हैं वहीं पूंजी निर्माण में प्रगति दिखा रहे हैं। लेकिन यह भी शुभ संकेतक नही है। शेयर बाजार जिस तरह से मेनुपुलेशन का क्षेत्र बन गया है उससे कंपनियों का संबंध उत्पादकता से टूट गया है। शेयर बाजार के खिलाड़ी बिना असल कारोबार किये मुनाफा बटोरने का खेल सीख चुके हैं जिससे यह बाजार धोखाधड़ी के बाजार में बदलता जा रहा है। शेयर बाजार के अलावा जमीनों और सोने-चांदी जैसी धातुओं में पूंजी की डंपिंग के भयावह परिणामों के प्रति भी समय से सतर्क होने की जरूरत महसूस की जानी चाहिए। पूंजी का प्रवाह गैर उत्पादक क्षेत्र से उत्पादकता बढ़ाने की ओर मोड़ने पर ही रोजगार की समस्या का समाधान सम्भव है और हर व्यक्ति की आवश्यकता को पूरा करने के दायित्व के निर्वाह के लिए व्यवस्था की सफलता भी इसी में निहित है। कुल मिलाकर एक दुश्मन भी अगर जाने-अनजाने में ऐसी राय दे जो गर्त की ओर जा रहे हमारे कदमों को संभाल सके तो उसका लाभ भी उठाने से चूंकना नही चाहिए।

लेखक कृष्ण पाल सिंह ( के पी सिंह ) वरिष्ठ पत्रकार हैं और समसामयिक मुद्दों पर उनकी अच्छी पकड़ है

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